♣ पूंजीवाद के ब्रॉड एम्बेस्डर गांधीजी ? ♣
गांधीजी ने अहिंसा के आंदोलन का सूत्रापात कर गुलामी की बेड़ियों से रिहाई दिलाई। हाथ में लाठी और बदन पर लंगोट उनकी पहचान बन गया। जिसमें कहीं भी रईसों की रहनुमाई और ऐशो आराम शुमार नहीं था। आजाद भारत के लिए गांधीजी ने आम आदमी के मर्म को मुद्दा बनाया और जायज़ हक की पैरवी की.....जब भी आवाज उठाई, तो उनकी प्राथमिकता या विषयवस्तु में बड़ा तबका यानि गरीब वर्ग शामिल था, जिसे बेजुबान रखने की साजिश हर हुकमरां किया करता रहा, वो चाहे राजा हो या अंग्रेज और अब सरकार। वक्त बदला और देर से ही सही आजादी के सूरज की लाली आम आदमी के हाथ आ ही गई। लेकिन..... स्वाधीनता ने गांधी जी को सम्मान दिया और नोट पर मंढ़ दिया गया। गांधीजी जो कभी पूंजीवाद की दांडी पर नहीं निकले, उन्होंने नमक को चुना, लेकिन सत्ता ने उसे सिक्कों की खनक और नोटों की दमक पर उकेर दिया। अचरज की ही बात है कि लंगोट पहने जिन गांधीजी के पीछे देश की जनता ने दौड़ लगाई,,,, उन्हें आज नोट में तब्दील कर दिया गया हैं। उस हरे-लाल गांधी को पाने के लिए, आज कोई हाड़तोड़ पसीना बहा रहा है तो दूसरी ओर एक बड़ा तबका घोटालों से गांधी हथिया रहा है। आलम यह है कि आज गरीब के हाथ बमुश्किल गांधीजी भत्ता ही आ पाता है क्योंकि जमाखोरी के इस दौर में गांधीजी पर अब भ्रष्टाचारियों, घूसखोरों, मिलावटखोरों और कमीशनबाजों की एक बड़ी गैंग काबिज है। तय है दौड़ गांधीजी के पीछे ही लगाई जा रही है पहले मक्सद आजादी था और आज अमीरी है। बदलाव सिर्फ इतना है कि आज गांधीनोट को पाने की हसरत में गरीब पिछड़ गया है और गांधीनोट के उन्मांद में अमीर उसे बेतहाशा लूट रहा है। ............अगर इस नजारे को खुद गांधी देख लेते तो ........? शायद इस अपभ्रंश व्यवस्था को देखकर वे भी बरबस ही बोल पड़ते.......अब बस करो, जो करना है करो, मुझे नोट से आजाद कर दो, देश में पूंजीवाद का ब्रॉड एम्बेस्डर न बनाओ। अगर कोई मजबूरी है तो गरीब के लिए बनी च्यवन्नी, अठन्नी या एक रूपए के सिक्के में पनाह दे दो लेकिन नोट पर छापकर मेरे नाम की खोट न बनाओ।........
सच है कि गांधीजी कल आजादी की आंधी थे, आंधी आज भी हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि आम आदमी के गांधीजी का नोट्यरूपांतरण कर उनका हरण अब अमीर ने कर लिया है। अंग्रेजों को अपने अनशन के दम पर बेबस और मजबूर कर देने वाले गांधीजी आज खुद बेबसी और लाचारी के आंसू बहाते हुए, लॉकरों में ठूंसे जा रहे हैं। वैचारिक रूप से समृद्ध गांधीजी को आजादी के प्रतीक के बतौर सम्मानस्वरूप मंडित किया गया। वही गांधीजी आज रंगीन कागजों की शक्ल में कभी चोरी छुपे स्विस बैंक में तो कभी हवाला में काम आ रहे हैं। कुल मिलाकर आम आदमी के लिए खुदको मुफ्त बताने वाले गांधीजी आज बाजार में दो वर्ग के गांधीजी में बदल गए हैं छोटे नोट पर गरीब के और बड़े नोट पर अमीर के। जाहिर है बड़े गांधीजी के सामने छोटे गांधीजी की हैसियत कमजोर ही है। यानि कमजोरों के लिए बड़े गांधीजी अब उनके हाथ से फिसल गए हैं, क्योंकि आजादी के बाद गांधीजी को हासिल करने की कीमत बहुत बड़ी है। अब मुफ्त के गांधीजी पार्क में हैं, स्कूलों की किताबों पर हैं या पोस्टर्स में लेकिन अर्थतंत्र के गांधीजी तो उद्यमियों, राजनेताओं और डिप्लोमेट्स से लेकर लॉबिस्ट की कोठी में अपहृत होकर आज भी गुलाम हैं। सारांश यह कि आजादी का प्रणेता खुद भी गुलाम बना दिया गया है और जिम्मा संभला दिया गया है गुलाम बनाने का। इस नजारे को देख गांधीजी के तीन बंदर भी अब भौंचक्के हैं, वे क्या बोलेंगे- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। तो सवाल यह है कि नोट के इस आंदोलन में गांधीजी बुरा होने की गुलामी से रिहाई कैसे दिलाएंगे, वे कुछ नहीं कर सकते तो सवाल यह कि गांधीजी को पूंजीवाद की गुलामी से कौन और कैसे आजाद कराएगा?
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