Tuesday, November 29, 2011

संवेदनाओं के बाज़ार में इन्फेट्युएशन का सच


मानव संवेदनाओं का पुतला है और यही संवेदनाएं उसका समाजीकरण करती हैं। संवेदनाओं और उनसे प्रेरित आवेगों के चलते ही अच्छे और बुरे काम अंजाम दिए जाते हैं। लेकिन संवेदनाओं का नव-बाज़ार अब मोह, आसक्ति और आग्रह की नई परिभाषाएं गढ़ रहा है। संचार के विविध माध्यम अपने-अपने पैंतरे से संवेदनाओं की नई पौध उगा रहे हैं। जिसकी नीली-सुनहरी रोशनी में कई बहुरंगी पाठ नई पीढ़ी को पढ़ाए जा रहे हैं। जिसमें हर उत्पाद संवेदनाओं के आकर्षक लिहाफ में उपभोक्तओं को बेचे जा रहे हैं। लिहाजा नवस्थापित संवेदनाओं के पैमाने के आधार पर नज़रिया बनाया जा रहा है। विज्ञापन, धारावाहिक, खबरें और फिल्में आर्थिक रूप से कमजोर आदमी के आग्रह को इन्फेट्युएशन और समर्थ यानि धनबल वालों के मोह को निश्चल प्रेम साबित करता है। 


इन्फेट्युएशन यानि आसक्ति इसे अंग्रेजी में मूर्खता पूर्ण आग्रह या दीवानगी और तर्करहित मोह बताया गया है। लेकिन हिन्दी में इसके पर्यायवाची हैं आसक्ति, मोह, आकर्षण और प्रेमांधता। जिसमें आत्मा नहीं है। दरअसल हमारे इर्द गिर्द वातावरण का इतना दबाव है कि कई आसक्तियां हमें मोहपाश में खींचकर उसे प्रेम जैसी गलतफहमीं देती हैं। दिक्कत यह भी है कि बदलाव के इस दौर में उपलब्ध पैमाने के आधार पर ही आप अपनी संवदेनाओं की पैमाइश करते हैं। मौजूदा पैमाने चूंकि खोटे हैं और भगवान यानि सकारात्मक शक्ति से संवाद व साधना के अभाव की वजह से व्यक्तित्व की जुम्बिश ही नहीं आत्मा की हूक गूंगी हो जाती है। चंद दिनों पहले किसी चर्चा में इन्फेट्युएशन शब्द सुनकर मैं चैंका और व्यथित हो उठा। फिर मनन किया.....चूंकि यह शब्द मेरे लिए निरर्थक है इसीलिए एक बारगी अपराध बोध में डूब गया। फिर इस शब्द के मायने टटोलने लगा तो खुलासा हुआ कि पागलपन या निहायत बेवकूफी वाला मोह और निराधार स्नेह होता है। सच तो यह है कि यह शब्द किसी को एक आरोप की तरह चुभ सकता है......खास तौर पर उनको, जिनके जीवन में सब कुछ ईश्वर की साधना से प्राप्त आत्मबोध से किया जाता हो।


      इन्फेट्युएशन को समझना बेहद आसान है। इसे जानने के लिए अपने मन की सभी परतों को खंगाल लेना चाहिए। यदि किसी भी व्यक्ति या वस्तु को एक बारगी देखने के बाद उसकी प्राप्ति के लिए मन ललचाए तो वह इन्फेट्युएशन है। यानि आपने कुछ हासिल करने के लिए उसे किसी पैमाने पर आंका नहीं हो, वह परीक्षा के दौर से गुजरा नहीं हो, अलग-अलग समय काल में उसने अपनी उपादेयता-उपयोगिता साबित न की हो। जो नकारात्मक क्षणों में आपको नई उर्जा न दे पाए। ऐसी कोई भी स्थिति इन्फेट्युएशन ही है। 


जिससे आपको सिलसिलेवार आत्मसंतुष्टि हो और मन को शुद्ध करता हो निर्मल करता हो। यही नहीं जिससे बाहरी आवरण का आकर्षण न होकर आत्मिक अनुबंध हो वह कतई इन्फेट्युएशन यानि मूर्खतापूण लगाव नहीं हो सकता। मगर, यह विश्लेषण तभी किया जा सकता है कि जब इच्छित से मिलन और बिछोह के दौर में आत्मा के केंद्र में गहरी जुम्बिश आपको उसके लिए कोई बलिदान या कुर्बानी देने का स्वाभाविक साहस पैदा कर दे। उसकी इच्छा से स्वार्थ को विलग कर दे। 
     खैर.... बहुत ही कम लोग इस विषय की थाह पा सकते हैं क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है - स्वार्थी होना। अलावा इसके आधुनिक मान्य परंपराओं और संवेदनाओं के बाजार में इन्फेट्युएशन का बहूरूपिया ऐसी गूढ़ आत्मिक संवदेनाओं की जगह ले चुका है। सच तो यह है कि बाजार बेचता है और बेचने के लिए पहले संस्कार से छेड़छाड़ करता है उसे अपने अनुरूप बदलता है फिर आधिपत्य कायम करता है। 


ऐसे में किसी के शुद्ध आत्मबोध युक्त स्नेह और उसमें अपनी खुशियां होम करने यानि बलिदान करने की थाह को कोई न समझे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लिहाजा अपने भीतर किसी के लिए आत्मा की असल जुम्बिश को भी न समझकर अक्सर लोग खारिज कर दिया करते हैं। और कभी दूसरे की आत्मजुम्बिश को इन्फेट्युएशन करार देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन सच कभी नहीं बदलता क्योंकि उसमें आत्मा का पवित्र प्रकाश होता है - पाने की ख्वाहिश से ज्यादा....किसी के लिए खोने की रीत निभाई जाती है। 


ऐसे में सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं -
 1. कोई समझे या इस संबंध में अपरिपक्व हो, खुदको ही न समझता हो 
2. समझे भी और न समझा चाहे लिहाजा खारिज कर दे। 
    
       बहरहाल, दोनों ही स्थितियों में एक परिणाम तो स्थाई है और वह है कि दूसरे का पवित्र आत्मिक आग्रह,  नकारे जाने पर भी उसकी आत्मिक महक यानि    -    स्मेल आफ सोल   -        जीवनपर्यन्त रस्साकशी करती ही रहती है। 


                      - स.ब.

Friday, November 25, 2011

गीत - तुझको, बो रहा हूं मैं

पल-पल खुदको खो रहा हूं मैं।
मुझमें, तुझको बो रहा हूं मैं।।

उग रही है फसल, सपनों की, रात दिन।
कैसी अजब हसरतें, ढो रहा हू मैं।
मुझमें, तुझको बो रहा हूं मैं।।........

बढ़ती ही जाए, तू मुझमें बड़े प्यार से।
जागता सा सो रहा हूं मैं।
मुझमें, तुझको बो रहा हूं मैं।।.........

फूल सी महके तू मुझमें, पर जाने ना।
अपने से पराया हो रहा हूं मैं।
मुझमें, तुझको बो रहा हूं मैं।।..........

मन बांवरा है, ढूंढे तुझे हर जगह।
आंखों में बादल डुबो रहा हूं मैं।
मुझमें, तुझको बो रहा हूं मैं।।.........

बो रहा हूं मैं, खो रहा हूं मैं......बो रहा हूं.....खो रहा हूं.......।
बो रहा हूं, तभी तो, खो रहा हूं मैं।
नमकीन आंसू रो रहा हूं मैं।
मुझमें, तुझको बो रहा हूं मैं।।...................बो कर, खो रहा हूं मैं।

                                                               -स.ब.
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Wednesday, August 10, 2011

ख्याल कुछ........ अजीब से

सांझ का उत्सव, रोज मनाता हूं मैं.....
डूबते सूरज के साथ
, हर शाम डूब जाता हूं मैं।
लाल, पीले, स्याह, सफेद
, रंगे आसमां के साथ....
अपने भी कुछ रंगों से
, जुदा हो जाता हूं मैं।।
करता हूं जतन, अंधेरे से रोशनी छानने का.....
फिर अपनी ही गर्म सांसों से
, चौंक जाता हूं मैं।।
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पीले पुराने पन्नों पर ही, अब तक चैन आता है।
सफेद नये पन्ने पर, हर बार हाथ फिसल जाता है।।
तू ही बता मैं कैसे लिखूं, नई स्याही नई कलम से।
जब भी हाथ में लेता हूं, तो अश्क छलक जाता है।।
        
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कभी सड़क, कभी पगडण्डी से जाता हूं मैं.....
हर रोज नया रास्ता
, खोज लाता हूं मैं।
इस शहर में जाने कहां, पुरा
ना गुम जाता है.....
खुदको हर बार नया नक्शा
, समझाता हूं मैं।
तुम पूछोगे तो भूल जाउंगा, जवाब जाने-बूझे.....
देखकर तुमको भी
, अजनबी सा पाता हूं मैं।
मेरे कमरे के भीतर
, सब कुछ है पुराना सा....
यही सुनकर नया रंग भी
, अक्सर लाता हूं मैं।
अब तो नहीं रहा मैं भी, पहले जैसा......
इसीलिए पुरानी तस्वीरों से
, चेहरा मिलाता हूं मैं।।
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इक रेशमी बाल जब मेरी कमीज से लिपट जाता है।
आंखों में वो बीता दौर, बिजली सा गुजर जाता है।।
छिटक गया है जो मुझसे, बारिश की बूंदो की तरह।
जाने क्यों पलकों में वो पल, बेहिसाब बह जाता है।।

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ये कौन बिखेर गया बेहिसाब फूल मेरी राहों में,
क्या देखे नहीं उसने बेपनाह कांटे मेरी बाहों में।
अब तू ही बता इन्हें कैसे चुनूं, खुशियां मैं कैसे बुनूं,
मेरे लहू से लिपटे कांटों को, बहाना बता क्या कहूं। 
फूल तो मुरझा जाएंगे, काटें पीछे दौड़ आएंगे,
बच गई जो महक तो, जहांवाले मांगने आएंगे।
ये हमसे खेलेंगे, टूटेंगे सपने आहों में,
सुकून हमसे ले लेंगे, छोड़ेंगे पथरीली राहों में।
कोई क्यों बिखेर गया बेहिसाब फूल मेरी राहों में,
क्या देखे नहीं उसने बेपनाह कांटे मेरी बाहों में।

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                                                                        स.ब.
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Sunday, June 12, 2011

मेरा जीवन - और वो दर्शन, जो मुझे समाज ने दिया .......... .......... स.ब.


आज 12 जून मेरा जन्मदिन है। 
..........अब तक के जीवन सफर में अपने अपनों और बॉसेज यानि गुरूओं और साथियों के अलावा वक्त के उतार चढ़ाव से बहुत कुछ सीखा। कुछ सीखा और कुछ खुद ही ईजाद किया लेकिन प्रेरणा कहीं समाज था तो कहीं प्रकृति तो कभी ईश्वर का प्रसाद। ...........मक्सद एक ही था जीवन को बेहतर तरीके से जीना। मैने अपने भीतर गांधीजी, भगतसिंह और महात्मा बुद्ध के दर्शन को पनाह दी.....उसे अपनाया लेकिन बहुत बार महात्मा बुद्ध का मध्यम मार्ग काम आया। .........लेकिन मेरे गुरू कहते हैं जो आपने समाज से लिया है उसे आपको लौटाना है...........सच कहते हैं हम सभी यह जिम्मेदारी भूल बैठे हैं कि हमें भी किसी ने कुछ दिया है....जिसके ले चुकने का हमें अहसास तक नहीं है। बहरहाल मैं आज अपने शब्दों के जरिए समाज से हासिल और अपनी सोच में शामिल दर्शन को सामने रख रहा हूं। जिसे अपनाकर मैने कुछ खोया लेकिन संतुष्टि बहुत पाई।
......इस आलेख के जरिए सभी का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं कि जाने अनजाने छोटे-बड़े ने कब कहां किसने मुझे क्या दे दिया उसे खुद ही अहसास न होगा। किसी ने नया विचार,, किसी ने जीने का तौर तरीका....किसी ने प्यार-दुलार और उसका अहसास....तो किसी ने दर्द और मुसीबत....फिर किसी ने समस्या से लड़ने का नुस्खा। तो सभी को सादर धन्यवाद।

“ सब समझता हूं मैं, पर कुछ बोलता नहीं हूं......कई आंखों की बदजबानी को लफजों से तोलता नहीं हूं ”
1. हर इनसान अपने लिए जीतना चाहता है पाना चाहता है खोना नहीं चाहता। यह सब कुछ सभी करते हैं लेकिन अकेले जीतने का मतलब तो स्वार्थी होना ही है, दरअसल जब आपको दूसरों को जिताने में खुशी महसूस हो तब आपकी जीत है। और आपकी अपनी जीत तब है जब आपके साथी या सहयोगी उसे खुदकी जीत मान लें।

2. खबरों के सफर में कई लोग मिले,,, गिनती करना मुश्किल है लेकिन उनमें नकाबपोशों या बहुरूपियों की संख्या ज्यादा थी। ऐसे लोगों को देखकर मन में एक वाक्य आया- अक्सर होठ पर मीठा और आंखों में तीखा क्यों दिखाई देता है- यानि होठ जो शब्दों की शक्ल में पेश कर रहे हैं वो बयान, आंखों से मैच नहीं हो रहे। खैर मुझे तो यही समझ आया कि आम इनसान बनना ज्यादा कठिन काम है क्योंकि उसमें कुर्बानियां बहुत देनी पड़ती हैं,,,,बहुत सहना पड़ता है और बगैर कुछ पाने की चाहत के अपना दायित्व निभाना पड़ता है।  पत्रकारिता के पड़ाव में बहुत कुछ देखा दबे कुचले लोग, दबंग लोग, दौलतमंद लोग और दायरे लांघने वाले लोग। ग्लैमर, गरीबी, बेचारगी, साहस, समर्पण और साजिश सब कुछ। फिल्मी सितारों से लेकर जमीदोज सितारे भी ,,,,,सोना-चांदी और लोगों की दुश्वारियां भी। देख समझकर यही ज्ञान मिला ........न कुछ पाने की तमन्ना है न खोने का गम.....जो खोना था खो चुका...जो होना था हो चुका.......। खैर गनीमत रही कि खुदपर कोई मुखौटा कभी रास नहीं आया.......जैसा भगवान ने बनाया था वैसा ही रहा,,,इस बात की खासी राहत है। दरअसल इसके श्रेय भी मुझे नहीं जाता है। दादा-दादी, माता-पिता और बडे़-बूढ़ों ने संस्कार दिए और बेहतर सामाजीकरण करने में हमपर बहुत परिश्रम किया।
....... सच यह है कि इनसान बनिए... किसी की मदद कर सकें तो कीजिए, अगर कुछ नहीं कर सकते तो दुआ कीजिए। क्योंकि पॉजिटिव एनर्जी यानि सकारात्मक तरंगे आपको तभी लाभ पहुंचाती हैं। जब आप मन के भीतर झील की तरह निर्मल सोच रखते हैं।

3. सभी दुःखों कारण एक्सपेक्टेशंस हैं यानि हमने उसके लिए यह किया - वह किया और देखो अहसान तो मानता नहीं .....उसने मदद का यह सला दिया। अरे भाई करके भूल जाओ...........नेकी करो गटर में डालो.....क्योंकि अब दरिया तो रहे नहीं। भलाई कीजिए लेकिन अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए.......यह सोचकर कि हमारे लिए भी किसी ने कुछ किया है। एक कर्ज है जिसे चुकाना है...दुनियां से लिया है उसे लौटाना है। अहसान की अदायगी के भंवर में उलझना बेकार और नाजायज है।

4. अपने आपको खुद ही जज बनकर इवेल्यूएट करो यानि छात्र भी आप परीक्षक भी आप। यह तो सभी जानते हैं कि आपकी स्लेट पर जो लिखा गया है वो आपकी जिम्मेदारी है उसमें न कोई कुछ घटा सकता है न ही बढ़ा सकता है। आप दूसरे की स्लेट पर ज्यादा देखकर परेशान हों यह गलत है। यह भी गलत है कि खुदको ओवरमार्किंग करें। खुदको ईमानदारी से जांचे और अटेस्टेड करें। दूसरों की राय को सुने और सही लगे तो एडिट करें यानि अपनी सोच को संपादित करें।

5. कोई इनसान खराब नहीं होता। भगवान ने सभी को एक जैसा बनाया है। हां कोई खराब लगता है तो वह महज गंदगी से घिर जाता है। जैसे कपड़े गंदे हो जाते हैं। तो उसके लिए डिटर्जेट पॉउडर से धोया जाता है। आपमें प्यार और समर्पण के साथ किसी को अपने में भरोसा पैदा करने के लिए हर तकलीफ उठाने की हिम्मत होनी चाहिए। हम रोज नहाते हैं तब बदबू और मैल से निजात मिल जाती है। स्वस्थ महसूस करते हैं तो ऐसे ही बुरे की बुराई धोकर हम और दूसरा भी स्वस्थ बन जाता है।
........लोग कहते हैं कि सीधी उंगली से घी नहीं निकलता टेढ़ी कर लो.....क्यों करें भाई- हममे दम है तो बोतल ही टेढ़ी नहीं कर लेंगे।

6. एक सच्चाई यह भी है कि कामयाबी की उम्र बहुत छोटी होती है। जब भी कामयाबी मिली तो उसका जश्न मनाया और अचानक उसकी खुशी फीकी पड़ जाती। तब लगा कि असल में नाकामयाबी या संघर्ष की उम्र ज्यादा होती है तो उसका लुत्फ उठाया जाना चाहिए। क्योंकि जिस दिन मंजिल हासिल उस दिन विराम यानि फुल स्टॉप।  दो दिन के बाद मायने खत्म महत्व कमजोर। अचानक ब्रेक लग जाता है। उसके बाद अगली कामयाबी की चिंता। तो मज़ा तो दिक्कतों का ही उठाना चाहिए। कहना आसान है लेकिन करना अब भी बहुत मुश्किल होता है। दिमाग को जाने कितने बार कितने तरीकों से समझाना और एडिट करना पड़ता है।

 7.मुझमें एक कमी थी कि मैं पहले तो गांधीजी के दर्शन को लेकर चलता रहा यानि सहता रहा तब परेशान रहा। अचानक आंदोलित हो उठा तो भगतसिंह की राह पकड़ डाली। फिर वही मुसीबत न गांधीजी का फार्मूला चलता दिखा न ही भगतसिंह का। एक दिन महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग का ख्याल आया। उनको कभी ढंग से पढ़ तो नहीं पाया लेकिन मध्यम मार्ग के शब्द में बहुत कुछ समझ आया। अब त्रिकोण बन गया। क्योंकि हर समय गाय या शेर की भूमिका से काम नहीं चलाया जा सकता कभी-कभी आपको कुछ नहीं बनना चाहिए यानि लचीलापन, संयम, साहस, जोश और होश एक साथ चलना चाहिए।  ...........
.............हैण्डल विथ केयर...........या फिर हैण्डल विथ हेयर.......डॉक्टर इनसान का हूं लेकिन जानवरों का ईलाज करना भी आता है।.......दरअसल सच तो यह है कि जिसे लोग दुशमन जैसा कहते हैं वैसा कुछ होता ही नहीं है.......दुश्मन से प्यार कीजिए उसकी केयर कीजिए लेकिन अपना बैर साधने के लिए कभी दूसरे का इस्तेमाल मत कीजिए। रिपेयर कीजिए, मरम्मत कीजिए सब कुछ ठीक हो जाता है। नहीं भी हो तो आपकी आत्मा पर कोई बोझ नहीं रहता कि आपने कोई सकारात्मक पहल नहीं की।

8. संस्कृत का एक श्लोक दसवीं में पढ़ा था-
               सत्यम् ब्रूयात प्रियम बू्रयात, न बू्रयात असत्यं च प्रियम...
               असत्यमं च नानृतम ब्रूयात, एशः धर्म सनातनः।
सच बोलो, झूठ न बोलो लेकिन ऐसा सच भी न बोलो कि भूचाल आ जाए। किसी को बेहद अधिक नुक्सान पहुंचा जाए। ऑलेवज स्पीक द टु्रथ....बट बी केयरफुल इन डिलीवरिंग द टु्रथ.....इट शुड नॉट हैम्पर ऑर डैमेज समथिंग ऑर समवनस इमोशन।

9. जोड़ना सीखिए......तोड़ना तो सब जानते हैं उसमें कोई कौशल की जरूरत नहीं होती आसान काम है कोई भी कर सकता है। रिपेयर करना बड़ा जटिल काम होता है। क्योंकि गुस्सा होना आसान है उसके परिणाम भी दो लोगों के लिए नकारात्मक होते हैं। हां आत्मसम्मान का मसला हो तो तीखे तेवर निभाना लाजिमी है।
एक उदाहरण है जो मुझमें रचा बसा रहता है और वो है राजा अशोक महान - जिन्होंने कलिंग का युद्ध जीतकर अपनी शक्ति का सबूत दिया। लेकिन युद्ध के बाद विध्वंस को देखकर वे खुद अपनी संहारक शक्ति से घबरा गए। सोचा किस कीमत पर जीत हासिल हुई। आखिरकार हाथ जोड़कर कह गए- मैं युद्ध नहीं चाहता। यही कुछ मुझमें समाया है कि मैं कहीं भी युद्ध नहीं चाहता क्योंकि अड़ गया तो संहार होगा।
..............बातें और भी हैं लेकिन यहीं विराम लेना होगा। इस आलेख के जरिए मेरे जीवन में भागीदारी निभाने और उनके अपने चरित्र के मुताबिक मुझे सम्मान या अपमान देने वाले सभी लोगों को मेरा सादर नमन।

धन्यवाद !                                                         
                                                                                  
   स.ब.

Friday, March 18, 2011

फ्लेश बैक - - स ब

फ्लेश बैक  - - स ब
     
आज दूर तक जाउंगा, दूर तक जाउंगा,
पुराने रासतों से कुछ पत्थर, चुन लाउंगा।


मिलेंगे कुछ फूल, गेंद और कंचे,
अपने पैरों में कांटें बीन लाउंगा।
आज कुछ दूर तक जाउंगा ...........


उडे़गी फिर तितली, भंवरे और पतंगें,
अपने हाथों में कुछ जख्म खींच लाउंगा।
आज कुछ दूर तक जाउंगा....................


बहेगी कोई कश्ती, सीपें और पत्ते,
लहरों के इलाके में घरौंदा बनाउंगा।
आज कुछ दूर तक जाउंगा.................


मचलता इक चांद, रातें और सितारे,
टूटे सपनों से काजल सजाउंगा।
आज कुछ दूर तक जाउंगा..................


लिखूंगा कोई चिट्ठी, बातें और यादें,
हथेली के किनारों पे स्याही लगाउंगा।
आज कुछ दूर तक जाउंगा..................


छूएंगे वो दुपट्टे, आंचल और साए,
उधड़े छिले रूमालों से रंग लगाउंगा।
आज कुछ दूर तक जाउंगा..................


         कुछ गमले उठाउंगा, कुछ फूल दे आउंगा,
         कुछ आंचल दे आउंगा, कुछ धागे ले आउंगा।।                  

                                                  - स ब 18/03/2011

 

Wednesday, February 23, 2011

- जाने कबसे-


वक्त की इन बदहवास सुईयों के साथ,
जाने कबसे दौड़ रहा हूं, अथक।
ईमान के हर अरमान के साथ,
जाने कबसे खो रहा हूं, मान।
कलयुग में अपाहिज सच के साथ,
जाने कबसे भोग रहा हूं, असत्य।
वायदे के हर फर्ज के साथ,
जाने कबसे चुका रहा हूं, कर्ज।
बेआवाज़ सांस, की जिंदगी के साथ,
जाने कबसे उठा रहा हूं, लाश।
सपनों की अधमरी उम्मीदों के साथ,
जाने कबसे बुन रहा हूं, आस।
मुफ्लिसी के मारे खुदाओं के साथ,
जाने कबसे खोज रहा हूं, स्वर्ग।
फूल पत्तियों की झुर्रियों के साथ,
जाने कबसे बहा रहा हूं, रक्त।
बड़बोली उजली तकदीर के साथ,
जाने कबसे जोड़ रहा हूं टूटी, लकीरें।

होठों की दरारों में आंसुओं के साथ,
जाने कबसे पोंछ रहा हूं, प्यार।
टूटे घड़े सा दिन अंधेरे के साथ,
जाने कबसे आंखें ढूंढ रहा हूं, अंधा।
घिसट रहा हूं हर रोज लाश के साथ,
जाने कबसे तलाश रहा हूं, कंधा।

 

Friday, February 11, 2011

दरअसल प्यार क्या है? ------स-ब


         संचार की एक परिभाषा में कहा गया है कि विचारों का आदान-प्रदान ही संचार है, प्यार भी एक तरह का आजीवन संचार है। वह भी देना और पाना है, लेकिन वह लघु और दीर्घ आवृत्ति का भी होता है। कहतें हैं पहली नजर में प्यार हो गया, सच यह है कि देखने का एक प्रभाव है ठीक उसी तरह जैसे हर एक इनसान दूसरे को प्रभावित करता है, या तो दूसरे के अनुकूल या फिर रिझाने के लिए उसके अनुरूप बनने का स्वांग रचा जाता है। लेकिन पहली नजर के प्यार के संदर्भ में महज सूरत यानि छवि और डील डौल यानि फिजिकल एपीरियंस को पसंद करते हुए आधार मान लिया जाता है। उसे साझेदारी को कसौटी पर कसा नहीं जाता इसीलिए कामयाबी या शेयरिंग अस्थाई हो सकती है।.........कुछ लोग बाद में कहते हैं, कि विचार नहीं मिलते। मोटे तौर पर इसका कारण फिजिकल अट्रेक्शन को महत्व दिया जाना है। यानि रूप रंग, हाव भाव यानि स्टाइल और प्राकृतिक रूप से लैंगिक आकर्षण हावी हो जाते हैं और मान लिया जाता है कि प्यार हो गया। वह महज फिजिकल अपीरियंस इफैक्ट होता है।
         दरअसल, प्यार में बहुत गहराई होती है वैसे ही जैसे हम भगवान को मानते हैं, पूजते हैं, उनसे अनुनय विनय करते हुए शिकायत करते हैं, मन्नतें पूरी न होने पर भी हमारा विश्वास डगमगाता नहीं है। वही प्यार में समर्पण और त्याग की आदर्श स्थिति है। इसीलिए हमारे पूर्वज कामयाब जोड़े साबित हुए क्योंकि उनमें विचारों में भिन्नता के बावजूद एक दूजे के लिए प्यार के साथ-साथ समर्पण और कुर्बानी की वचनबद्व मानसिकता ठोस थी। यह सब संस्कार की बात है। जहां त्याग समर्पण के साथ दायित्व बोध का क्षरण हो जाता है वहां प्यार का घड़ा कच्चा साबित होता है और संघर्ष की हल्की सी फुहार से फूट जाता है। क्योंकि जीवन की दहलीज पर कई इम्तिहान देने पड़ते हैं। ऐसे में जीवन साथी के प्रति शर्तरहित यानि अनकंडीश्नल अनुबंध ही प्यार को चिरस्थाई रखता है।
      भगवान राम को पाने के लिए माता सीता ने पहले भगवान शिवजी को प्रसन्न किया और असंभव धनुष को उठाना संभव बनाया। सीता अपने पति के प्रति अगाध प्रेम को उनकी सोच से सोच मिलाकर निभाती गई। उसने महल और ऐशवर्य का त्याग कर पति के साथ जंगलों का सफर तय किया। बाद में अग्नि परीक्षा और विरह की अग्नि में भी जली। मीरा का प्रेम भी अपने आराध्य कृष्ण भगवान के लिए वैसा ही था यानि अनकंडीश्नल।  असल में यही प्यार की परम् अनुबंधित और समर्पित स्थिति होती है।
       मैने अपनी भाभी से पूछा, भईया को कितना प्यार करती हो, उन्हें क्या मानती हो? जवाब मिला - वो तो मेरे गुरू हैं, और जीवन की पतवार हैं, गुस्सा करें तो सोचती हूं कहीं गलती हो गई हुई है, जब उनसे होती है तो नकार जाती हूं क्योंकि उनसे शिकायत नहीं है वो दीर्घ प्यार हैं यानि प्यार का विस्तृत पक्ष और केंद्र, वहीं मैं लघु हूं यानि अनन्य समर्पण और प्यार की माली। उनके लिए मन में भाव हमेशा स्थाई रहता है उसमें एडिटिंग नहीं होती। दिक्कत उन लोगों को होती है जो प्रेम में मेहंदी बनकर रचने के नियमों का पालन नहीं करते, एडामेंट या रिजिड हो जाते हैं यानि व्यर्थ के अहंकार में प्यार का रंग फीका पड़ जाता है। कुछ खोना नहीं चाहते, अपनी प्राथमिकता और वो भी सर्वोपरि, सबसे पहले मेरा हक।
     भाभी बड़ी ज्ञानी हैं सही कहती हैं कि प्यार में दायित्व पक्ष भी है, एक बेटे का माता-पिता के लिए और अपनी बहन व भाई के लिए साथ में कुछ दोस्तो से नाता निभाने के लिए साथ ही अपने कर्मस्थल की अनएडजस्टेबल डिमांड या रिक्वॉयरमेंट पूरी करने के लिए भी।
.........लेकिन होता क्या है कि जब प्यार यथार्थ से टकराता है तो ऐसी परीक्षाओं में ज्यादातर लोगों का मानसिक आलम्बन उसके दायित्व से नहीं होता। क्योंकि उनके जीवन में प्यार किसी फैंटेसी यानि परिकल्पना की तरह परिभाषित रहता है, वैसे ही जैसे रब ने बना दी जोड़ी फिल्म की नायिका अपने अन्तःकरण यानि मानस में जीवन साथी की एक फैंटेसी गढ़ लेती है। इसमें निर्देशक ने बड़ी ही चतुराई से दर्शकों को प्यार की फैंटेसी यानि मृगतृष्णा या कहें कपोल कल्पित सोच का अहसास करा दिया। असल में प्यार केयरिंग और हीलिंग दोनों से गहरे जुड़ा होता है। उसमें नाप-तोल, जोड़-बाकी जैसा बहीखाता नहीं चलता।
    प्यार का मतलब पलना और बढ़ना भी है, वैसे ही जैसे एक छोटा बच्चा अगर बड़ा न हो तो क्या होगा? इसीलिए प्यार संयमित श्रृंगार और पूजा भी मांगता है। उसे अपने भीतर सजाना और संवारते रहना पड़ता है, सरस बनाए रखने के लिए हर पल सांसों में सींचना पड़ता है। वैसे ही जैसे पुरूष हर रोज दाड़ी बनाते हैं और महिलाएं अपने रूप-रंग को चमकाने के जतन करती हैं। यदि मानसिक रूप से प्यार का फेशियल नहीं किया जाता और धोया नहीं जाता तो उसमें अहंकार और मान अपमान जैसे बैक्टीरिया पनप जाते हैं जो प्यार का नर्म अहसास खा जाते हैं और सख्त होते ही वह तकरार बन जाता है। यही नहीं वक्त के साथ-साथ प्यार को पालते पोसते हुए उसके बड़े होने की तैयारी भी करनी पड़ती है। प्यार में कई तरह की मैच्योरिटी भी आती है यदि दोनों उसे अपना नहीं पाते तो भी प्यार का रंग स्याह हो जाता है। कॉलज के प्यार में बचपना होता है, विवाह के बाद उसे वक्त के साथ साथ प्यार की सामाजिक जिम्मेदारियों के अनुकूल मैच्योर बनाना पड़ता है, कुछ छोड़ना पड़ता है कुछ अपनाना पड़ता है।
     उदाहरण के लिए एक मां अपने अबोध बच्चे को पालती पोसती है, उसे अपने मुताबिक शिक्षित करती है। लेकिन आगे चलकर यदि बच्चा उसके अनुकूल नहीं है तब भी वह अनुकूलन स्थापित कर लेती है। बच्चे से उसका लगाव अनकंडीश्नल होता है। बेटा नालायक है तो भी मां का ममत्व वही और लायक है तब भी वही लगाव। वहीं एक भाई अपनी बहन को लेने के लिए दूर तक जाता है तो कभी घंटों इंतजार करता है। उसी प्रकार एक जीवन साथी के भीतर कहीं मां का अंश होता है, कुछ पिता का साया भी। मगर एक परिवार और जिम्मेदारियों को निभाने के लिए हस्तक्षेप और सहभागिता का महत्वपूर्ण किरदार भी निभाना हैं उसमें कभी पत्नी के प्यार को प्यासा रखना है, कभी मां के और वैसे ही पिता के भी। फिर भी तालमेल यानि केमेस्ट्री में खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। जहां कुछ रिक्तता रखी गई है वह पक्ष उसके मायने समझे और उसे सहने के बजाए सहज स्वीकार करे।
     एक अहम पक्ष और है कि आज की दुनियां में उपभोक्तावाद चरम् पर है, लिहाजा लड़के-लड़की को सब कुछ चाहिए। अपनी देह को आराम देने के लिए तमाम तरह की सुख सुविधाएं। लिहाजा प्यार करने से पहले कई लड़कियां और लड़के चुनाव करते हैं। घर बार ठीक है यानि यह सुनिश्चित किया जाता है कि पैसे की कोई कमी नहीं हो। ऐसे मे प्यार में एक कंडीशन आ गई। सच तो यह भी है कि प्यार को किसी भी मुद्रा से खरीदकर आनन्द नहीं उठाया जा सकता, इंजोए नहीं किया जा सकता। हां हम एक मैटीरियल या प्रॉडक्ट को हासिल कर एक खुशी जरूर पा सकते हैं, जो असल में कभी भी तुष्ट नहीं होती वह अनन्त है। क्योंकि प्यार एक व्यक्ति से किया जाता है न कि उसके पास मौजूद सुविधाओं से, क्योंकि सुविधाएं पैदा भी की जा सकती हैं और छूट भी सकती हैं। एक उदाहरण सहारा श्री यानि सुब्रत रॉय भी हैं। जिन्होंने प्यार किया और विवाह किया। महज दो हजार रूपए से चिट फंड कंपनी स्थापित की और आज तकरीबन 9 लाख कर्मचारियों की जिम्मेदारी उठा रहे हैं। सहाराश्री के मामले में क्या हुआ बताना जरूरी है। वहां प्यार की ताकत ने एक व्यक्ति में आत्मविश्वास को कई गुणा बढ़ा दिया। अपनी जीवन शैली में ही प्यार को जोड़ दिया या कहें प्यार को बूस्टर डोज बना दिया गया।
        प्रेमी युगलों की बात करें तो अक्सर ऐसे संबंधों में एक दूजे पर समान हक की मानसिकता हावी होती है। चूंकि दोनों एक दूसरे को पहले से जानते हैं लिहाजा दोनों की तरफ से कई बार एडजेस्टमेंट में दिक्कत आती है वो इसलिए कि पहले प्यार हुआ फिर शादी हुई। यहां लव डॉमिनेट करता है। जबकि डॉमिनेट करने के बजाए सहसंबंध में और शीतलता लानी चाहिए। इसीलिए अरेंज मेरिज कुछ ज्यादा कामयाब होती रहीं हैं क्योंकि वहां पत्नी को ससुराल के मुताबिक दोबारा अपना सामाजीकरण करना पड़ता है। वहां डॉमिनेशन होता मगर एक पक्षीय और पत्नी कई दबावों और बंधनों से घिरी रहती है। एडजेस्टमेंट में दिक्कत होने पर भी पीहर पक्ष साथ नहीं देता अपितु ससुराल को समर्थन देता है। दूसरा कारण है कि वहां इंटरकास्ट जैसा कोई फैक्टर नहीं होता और भारी सामाजिक और पारिवारिक दबाव होता है। लिहाजा विषम परिस्थितियों के बावजूद स्त्री सब कुछ सहती है और कालांतर में सामंजस्य स्थापित कर ही लेती है, वह अपने सोचने का नजरिया ही बदल डालती है। लेकिन लव मैरिज में इसके बहुत कुछ उलट होने का खतरा बना रहता है। चूंकि लड़की की अपने साथी से दोस्ती घनी होती है लिहाजा वह किसी भी मोर्चे पर लधु किरदार अपनाना नहीं चाहती और एडजस्टमेंट में कमजोर पड़ जाती है, वहीं कॉफ्लिक्ट पैदा हो जाता है।
         कुल मिलाकर प्यार एक कमिटमैंट है उसमें कोई शर्त नहीं लेकिन नियम जरूर है एक तो मानसिक खाद में कमीं कटौती नहीं चलती, दूसरा डोमिनेशन नुक्सान पहुंचाता है या आहत करता है, केयरिंग और हीलिंग के साथ क्विक एडजेस्टमेंट और छोटी-मोटी बातों को इग्नोर किए बिना प्यार को सहेजा नहीं जा सकता। पत्नी का अत्यधिक पीहर प्रेम जैसा कॉक्टेल भी किसी एक बिंदू पर प्यार को अस्वस्थ करने का बड़ा कारण बनता है।
      सच्चाई तो यह है कि प्यार पर कई सामाजिक फैक्टर हस्तक्षेप करते रहते हैं और प्रभाव डालते हैं। उसमें असल प्यार ही जीवनपर्यन्त बहता है और वो भी तब जब बॉडिंग मजबूत हो यानि एक दूजे के बिना जीवन की परिकल्पना अस्तित्वहीन हो, उसमें छलावा न हो और न ही आर्थिक आधार पर किसी बुनियाद को गढ़ा जाए। मजबूत तर्क यह भी है कि प्यार विश्वास के साथ आत्मविश्वास देता है जाहिर है प्यार कभी गरीब होता ही नहीं है, उसमें साथी के दो मीठे बोल जीवन में साहस और उर्जा भर देते हैं। धन तो माया है आता जाता रहता है। जिसे देश और दुनियां के कई लोगों ने मंदी यानि रिसेशन के दौर में नौकरी चले जाने पर भोगा था, उस दौर में जिसके पास असल प्यार नहीं था, वहां आर्थिक तंगी से तनाव पैदा हुआ और जहां प्यार का मजबूत अनुबंध था उन्होंने ऐसे कठिन दौर को भी मनमीत की प्रीत के सहारे सहजता से गुजार लिया।
    प्यार, तर्क की विषयवस्तु नहीं है बल्कि जीवन दर्शन है उसके लिए एक त्रिकोण भी आवश्यक है महिला, पुरूष और दोनों के बीच प्यार को रिचार्ज करने के लिए भगवान या कुलदेवता या ईष्टदेव के प्रति दोनों साथियों का समान समर्पण। क्योंकि वहीं से प्रेम को पल्लवित करने की ऐनर्जी मिलती है। इसीलिए कहते हैं कि लव इज़ स्प्रिच्युअल या लव इज अ सिन्सियर ड्यूटी विथ ऑनेस्टी। अगर महज शरीर से किया गया, तो टिका≈ नहीं होगा। मिलान मन का है और एक दूसरे के लिए बढ़ चढ़कर करने की शर्तरहित सोच रखते हुए साथी को जीवन का केंद्र मान लिया जाए...... बगैर एक्पेक्टेशन के यानि रिटर्न की चिंता या मनन नही, वही सफल प्रेम है, जो कुछ मांगता नहीं है बस अनवरत देता रहता है। जीवन के सौन्दर्य को समझने के लिए प्रेम किया जाना चाहिए जो निश्चल हो और शारीरिक या आर्थिक आडम्बर से मुक्त हो। 

Wednesday, January 19, 2011

♣ पूंजीवाद के ब्रॉड एम्बेस्डर गांधीजी ? ♣

                         ♣  पूंजीवाद के ब्रॉड एम्बेस्डर गांधीजी ?  ♣
       गांधीजी ने अहिंसा के आंदोलन का सूत्रापात कर गुलामी की बेड़ियों से रिहाई दिलाई। हाथ में लाठी और बदन पर लंगोट उनकी पहचान बन गया। जिसमें कहीं भी रईसों की रहनुमाई और ऐशो आराम शुमार नहीं था। आजाद भारत के लिए गांधीजी ने आम आदमी के मर्म को मुद्दा बनाया और जायज़ हक की पैरवी की.....जब भी आवाज उठाई, तो उनकी प्राथमिकता या विषयवस्तु में बड़ा तबका यानि गरीब वर्ग शामिल था, जिसे बेजुबान रखने की साजिश हर हुकमरां किया करता रहा, वो चाहे राजा हो या अंग्रेज और अब सरकार। वक्त बदला और देर से ही सही आजादी के सूरज की लाली आम आदमी के हाथ आ ही गई। लेकिन..... स्वाधीनता ने गांधी जी को सम्मान दिया और नोट पर मंढ़ दिया गया। गांधीजी जो कभी पूंजीवाद की दांडी पर नहीं निकले, उन्होंने नमक को चुना, लेकिन सत्ता ने उसे सिक्कों की खनक और नोटों की दमक पर उकेर दिया। अचरज की ही बात है कि लंगोट पहने जिन गांधीजी के पीछे देश की जनता ने दौड़ लगाई,,,, उन्हें आज नोट में तब्दील कर दिया गया हैं। उस हरे-लाल गांधी को पाने के लिए, आज कोई हाड़तोड़ पसीना बहा रहा है तो दूसरी ओर एक बड़ा तबका घोटालों से गांधी हथिया रहा है। आलम यह है कि आज गरीब के हाथ बमुश्किल गांधीजी भत्ता ही आ पाता है क्योंकि जमाखोरी के इस दौर में गांधीजी पर अब भ्रष्टाचारियों, घूसखोरों, मिलावटखोरों और कमीशनबाजों की एक बड़ी गैंग काबिज है। तय है दौड़ गांधीजी के पीछे ही लगाई जा रही है पहले मक्सद आजादी था और आज अमीरी है। बदलाव सिर्फ इतना है कि आज गांधीनोट को पाने की हसरत में गरीब पिछड़ गया है और गांधीनोट के उन्मांद में अमीर उसे बेतहाशा लूट रहा है। ............अगर इस नजारे को खुद गांधी देख लेते तो ........? शायद इस अपभ्रंश व्यवस्था को देखकर वे भी बरबस ही बोल पड़ते.......अब बस करो, जो करना है करो, मुझे नोट से आजाद कर दो, देश में पूंजीवाद का ब्रॉड एम्बेस्डर न बनाओ। अगर कोई मजबूरी है तो गरीब के लिए बनी च्यवन्नी, अठन्नी या एक रूपए के सिक्के में पनाह दे दो लेकिन नोट पर छापकर मेरे नाम की खोट न बनाओ।........
   सच है कि गांधीजी कल आजादी की आंधी थे, आंधी आज भी हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि आम आदमी के गांधीजी का नोट्यरूपांतरण कर उनका हरण अब अमीर ने कर लिया है। अंग्रेजों को अपने अनशन के दम पर बेबस और मजबूर कर देने वाले गांधीजी आज खुद बेबसी और लाचारी के आंसू बहाते हुए, लॉकरों में ठूंसे जा रहे हैं। वैचारिक रूप से समृद्ध गांधीजी को आजादी के प्रतीक के बतौर सम्मानस्वरूप मंडित किया गया। वही गांधीजी आज रंगीन कागजों की शक्ल में कभी चोरी छुपे स्विस बैंक में तो कभी हवाला में काम आ रहे हैं। कुल मिलाकर आम आदमी के लिए खुदको मुफ्त बताने वाले गांधीजी आज बाजार में दो वर्ग के गांधीजी में बदल गए हैं छोटे नोट पर गरीब के और बड़े नोट पर अमीर के। जाहिर है बड़े गांधीजी के सामने छोटे गांधीजी की हैसियत कमजोर ही है। यानि कमजोरों के लिए बड़े गांधीजी अब उनके हाथ से फिसल गए हैं, क्योंकि आजादी के बाद गांधीजी को हासिल करने की कीमत बहुत बड़ी है। अब मुफ्त के गांधीजी पार्क में हैं, स्कूलों की किताबों पर हैं या पोस्टर्स में लेकिन अर्थतंत्र के गांधीजी तो उद्यमियों, राजनेताओं और डिप्लोमेट्स से लेकर लॉबिस्ट की कोठी में अपहृत होकर आज भी गुलाम हैं। सारांश यह कि आजादी का प्रणेता खुद भी गुलाम बना दिया गया है और जिम्मा संभला दिया गया है गुलाम बनाने का। इस नजारे को देख गांधीजी के तीन बंदर भी अब भौंचक्के हैं, वे क्या बोलेंगे- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। तो सवाल यह है कि नोट के इस आंदोलन में गांधीजी बुरा होने की गुलामी से रिहाई कैसे दिलाएंगे, वे कुछ नहीं कर सकते तो सवाल यह कि गांधीजी को पूंजीवाद की गुलामी से कौन और कैसे आजाद कराएगा?

Friday, January 14, 2011

नहीं लूंगा, बस दूंगा तुझे,,,,,,तेरे लिए

तेरे लिए बनाउंगा मैं,,,,,,,,,
सुर्ख पंखुड़ियों का घरौंदा,
बुहारूंगा नर्म कमल सी जमीं,
दमकती जुगनू से रोशनी,
और मेरी धड़कनों का झूला,,,,,तेरे लिए उम्र भर


तेरे लिए सजाउंगा मैं,,,,,,,
पलकों का रेशमी पालना,
सुरीले गीतों का बिछौना,
झरती प्यार की सेज,
और मेरे जज़बातों का बंधेज,,,,,,तेरे लिए उम्र भर


तुझे दे जाउंगा मैं,,,,,,,,,,
फूल पलाश के गहने,
महकते मोगरे की चुनरिया,
सीप नयन की मोती माला,
और मेरे लहू के फूल,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,तेरे लिए उम्र भर

Tuesday, January 11, 2011

क्या आप वाकई खूबसूरत हैं ?



हर किसी को ये कॉप्लीमेंट्स रास आ जाते हैं कि आप बहुत स्मार्ट हैं या खूबसूरत हैं। दरअसल फौरी तौर पर इस तरह की टिप्पणी सुनकर आप गर्व का अहसास कर लेते हैं। लेकिन खबरों के सफर में लाखों लोगों से मुलाकात हुई और अस्सी फीसदी खूबसूरत लोग अपने श्रेष्ठता की मद में चूर मिले। यही नहीं मानसिक तौर पर उनमें श्रेष्ठता के गुणात्मक अहसास की विकृति या मनोविकार उनके जीवन का अविभाज्य हिस्सा बना दिखाई दिया। लिहाजा कई बार खबर करते वक्त यह भी देखने को मिला कि ज्यादा आकर्षक और सुंदर चेहरे मोहरे वाले अधिकांश लोग ही अपने जीवन में छोटा बड़ा अपराध करते पाए गए या असफल दिखाई दिए। इसके उलट एवरेज यानि अति सामान्य लोग ज्यादा कामयाब और संयत मिले। यहां बताना जरूरी है कि इन उदाहरणों के जरिए खूबसूरती का अपमान करना या आरोप लगाना नहीं है। मक्सद सुखद सुंदरता समझाना है। कड़वी सच्चाई यह है कि पॉवर यानि शक्ति या श्रेष्ठता कैसी भी क्यों न हो, अक्सर उसका मद इनसान पर हावी हो जाता है। वैसे ही जैसे पत्रकार, नेता और पुलिस अपनी शक्तियों के रोजमर्रा अहसास की भूलभुलैया में अपने भीतर छुपे एक आम इनसान और उसकी निश्चल पहचान गंवा देते हैं। बात फायदे नुक्सान की नहीं है लेकिन मुद्दा है कि अगर ईश्वर ने आपको कुछ अच्छा दिया है तो हमारे पास जो विकृत या कूरूप है उसे खूबसूरत बनाया जाए। अक्सर इसका उल्टा ही होता है। खूबसूरत लोग खुदको संपूर्ण मानकर अपने भीतर कुछ और खूबसूरत बनाने के प्रयास पर विराम लगा देते हैं। वैसे ही जैसे खरगोश और कछुए की बचपन की कहानी में खुदको विजयी मानकर खरगोश आत्मविश्वास के साथ सो जाता है। लेकिन तेज न चल पाने के अहसास के चलते कछुआ अपनी रफ्तार और कोशिशें अनवरत जारी रखता है, आखिरकार जीत जाता है। कुछ ऐसा ही उन लोगों के साथ होता है जिन्हें कुदरत ने कोई कमीं के साथ पैदा किया हो। ऐसे लोगों के भीतर अधूरेपन का अहसास अक्सर बना रहता है इसीलिए लो प्रोफाइल रहते हैं। उन्हें इस बात का अंदाजा रहता है कि उनमें कुछ खास नहीं है। लिहाजा कुछ विशेष बनने की कोशिशें जारी रखते हैं, खुदको अधूरा समझते हुए वह इनसान लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने के लिए तड़पता रहता हैं और इसी जुनून में वह कुछ ऐसा कर गुजरता है जो एक खूबसूरत इनसान नहीं कर सकता।............. इसका सारांश तो यही है आप खूबसूरत हैं तो यह आपके लिए संतुष्टि की विषयवस्तु तो कतई नहीं होनी चाहिए। क्योंकि सुंदरता की गलत परिभाषा आपको सकारात्मक परिणाम नहीं दे सकती न ही सोचने का तौर तरीका दे सकती है। मसलन चेहरा-मोहरा, कद काठी, खूबसूरती के लिए महज मेकअप हो सकता है। मगर असल खूबसूरती तो वह जो लगातार किसी न किसी चीज को खूबसूरत बनाती चले और हर इनसान के भीतर छुपी किसी न किसी खासियत की इज्जत करे।