Tuesday, November 29, 2011

संवेदनाओं के बाज़ार में इन्फेट्युएशन का सच


मानव संवेदनाओं का पुतला है और यही संवेदनाएं उसका समाजीकरण करती हैं। संवेदनाओं और उनसे प्रेरित आवेगों के चलते ही अच्छे और बुरे काम अंजाम दिए जाते हैं। लेकिन संवेदनाओं का नव-बाज़ार अब मोह, आसक्ति और आग्रह की नई परिभाषाएं गढ़ रहा है। संचार के विविध माध्यम अपने-अपने पैंतरे से संवेदनाओं की नई पौध उगा रहे हैं। जिसकी नीली-सुनहरी रोशनी में कई बहुरंगी पाठ नई पीढ़ी को पढ़ाए जा रहे हैं। जिसमें हर उत्पाद संवेदनाओं के आकर्षक लिहाफ में उपभोक्तओं को बेचे जा रहे हैं। लिहाजा नवस्थापित संवेदनाओं के पैमाने के आधार पर नज़रिया बनाया जा रहा है। विज्ञापन, धारावाहिक, खबरें और फिल्में आर्थिक रूप से कमजोर आदमी के आग्रह को इन्फेट्युएशन और समर्थ यानि धनबल वालों के मोह को निश्चल प्रेम साबित करता है। 


इन्फेट्युएशन यानि आसक्ति इसे अंग्रेजी में मूर्खता पूर्ण आग्रह या दीवानगी और तर्करहित मोह बताया गया है। लेकिन हिन्दी में इसके पर्यायवाची हैं आसक्ति, मोह, आकर्षण और प्रेमांधता। जिसमें आत्मा नहीं है। दरअसल हमारे इर्द गिर्द वातावरण का इतना दबाव है कि कई आसक्तियां हमें मोहपाश में खींचकर उसे प्रेम जैसी गलतफहमीं देती हैं। दिक्कत यह भी है कि बदलाव के इस दौर में उपलब्ध पैमाने के आधार पर ही आप अपनी संवदेनाओं की पैमाइश करते हैं। मौजूदा पैमाने चूंकि खोटे हैं और भगवान यानि सकारात्मक शक्ति से संवाद व साधना के अभाव की वजह से व्यक्तित्व की जुम्बिश ही नहीं आत्मा की हूक गूंगी हो जाती है। चंद दिनों पहले किसी चर्चा में इन्फेट्युएशन शब्द सुनकर मैं चैंका और व्यथित हो उठा। फिर मनन किया.....चूंकि यह शब्द मेरे लिए निरर्थक है इसीलिए एक बारगी अपराध बोध में डूब गया। फिर इस शब्द के मायने टटोलने लगा तो खुलासा हुआ कि पागलपन या निहायत बेवकूफी वाला मोह और निराधार स्नेह होता है। सच तो यह है कि यह शब्द किसी को एक आरोप की तरह चुभ सकता है......खास तौर पर उनको, जिनके जीवन में सब कुछ ईश्वर की साधना से प्राप्त आत्मबोध से किया जाता हो।


      इन्फेट्युएशन को समझना बेहद आसान है। इसे जानने के लिए अपने मन की सभी परतों को खंगाल लेना चाहिए। यदि किसी भी व्यक्ति या वस्तु को एक बारगी देखने के बाद उसकी प्राप्ति के लिए मन ललचाए तो वह इन्फेट्युएशन है। यानि आपने कुछ हासिल करने के लिए उसे किसी पैमाने पर आंका नहीं हो, वह परीक्षा के दौर से गुजरा नहीं हो, अलग-अलग समय काल में उसने अपनी उपादेयता-उपयोगिता साबित न की हो। जो नकारात्मक क्षणों में आपको नई उर्जा न दे पाए। ऐसी कोई भी स्थिति इन्फेट्युएशन ही है। 


जिससे आपको सिलसिलेवार आत्मसंतुष्टि हो और मन को शुद्ध करता हो निर्मल करता हो। यही नहीं जिससे बाहरी आवरण का आकर्षण न होकर आत्मिक अनुबंध हो वह कतई इन्फेट्युएशन यानि मूर्खतापूण लगाव नहीं हो सकता। मगर, यह विश्लेषण तभी किया जा सकता है कि जब इच्छित से मिलन और बिछोह के दौर में आत्मा के केंद्र में गहरी जुम्बिश आपको उसके लिए कोई बलिदान या कुर्बानी देने का स्वाभाविक साहस पैदा कर दे। उसकी इच्छा से स्वार्थ को विलग कर दे। 
     खैर.... बहुत ही कम लोग इस विषय की थाह पा सकते हैं क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है - स्वार्थी होना। अलावा इसके आधुनिक मान्य परंपराओं और संवेदनाओं के बाजार में इन्फेट्युएशन का बहूरूपिया ऐसी गूढ़ आत्मिक संवदेनाओं की जगह ले चुका है। सच तो यह है कि बाजार बेचता है और बेचने के लिए पहले संस्कार से छेड़छाड़ करता है उसे अपने अनुरूप बदलता है फिर आधिपत्य कायम करता है। 


ऐसे में किसी के शुद्ध आत्मबोध युक्त स्नेह और उसमें अपनी खुशियां होम करने यानि बलिदान करने की थाह को कोई न समझे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लिहाजा अपने भीतर किसी के लिए आत्मा की असल जुम्बिश को भी न समझकर अक्सर लोग खारिज कर दिया करते हैं। और कभी दूसरे की आत्मजुम्बिश को इन्फेट्युएशन करार देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन सच कभी नहीं बदलता क्योंकि उसमें आत्मा का पवित्र प्रकाश होता है - पाने की ख्वाहिश से ज्यादा....किसी के लिए खोने की रीत निभाई जाती है। 


ऐसे में सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं -
 1. कोई समझे या इस संबंध में अपरिपक्व हो, खुदको ही न समझता हो 
2. समझे भी और न समझा चाहे लिहाजा खारिज कर दे। 
    
       बहरहाल, दोनों ही स्थितियों में एक परिणाम तो स्थाई है और वह है कि दूसरे का पवित्र आत्मिक आग्रह,  नकारे जाने पर भी उसकी आत्मिक महक यानि    -    स्मेल आफ सोल   -        जीवनपर्यन्त रस्साकशी करती ही रहती है। 


                      - स.ब.

1 comment:

  1. कंहा गया वो भारत ...?
    मैं हेरान परेशान ढूँढता फिर रहा .... !!!
    मैंने सोचा महलों में देखू .....जो भारत कि पहचान है...
    आज वहाँ गया तो रोना आ गया....उसकी हालत देख कर मन परेशान है....
    फिर भी मैंने पत्थर दिल करके पूछ ही लिया ....
    कि कंहा है भारत ...
    तभी अचानक वो भरभरा के गिर गया ...और शायद मेरा जवाब मुझे मिल गया ....:(
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    फिर गया मैं अयोध्या मंदिर जो भारत कि आस्था है...
    जैसे ही मैं अंदर घुसने लगा तो एक भला मानस बोला...!
    अबे पिछली गली से जा ये निर्मोही वालो का रास्ता है...
    फिर मैंने मंदिर से पुचा कि भारत का पता बतलायेगा ....
    उसने सर झुका के बोल! मामला अभी कोर्ट में है इसका पता तो वही चल पायेगा....:(
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    जा पहोंचा मैं लालकिले पर जो भारत कि सान है ...
    अंदर देखा तो चारो तरफ ,,i love u,i miss u जैसे निसान है....
    फिर सोचा कि इससे क्या पूछु ...ये तो अपने नाम से ही अंजान है...
    जो लाल किला था मरदाना वो बनगया उमराव जान है.......:(
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    लालकिले से हो लिया संसद कि तरफ ,,,जंहा चल रही थी नेतायो कि बैठक....
    पहले तो मैं देख कर चोंक गया ....समझ में ही नही आया संसद है या युद्ध का मैदान....
    इतने में ही एक जूता आया लहराता हुआ और बना गया मेरे मुहं पर एक निशान....
    आईने में देखा तो समझ गया...कि यही है नक्शा ए हिंदुस्तान ....:(
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    फिर पुछा मैंने भारतीय सिनेमा से ...कि कह! है वो आदर्श भारत वो आदर्श सिनेमा ...
    उसने मेरी खिल्ली उड़ाते हुए बोला कि क्या करेगा आदर्शो का ...शीला और मुन्नी है ना...
    समझा नही आया कंहा गया वो निर्मल राग ....इतने में पीछे से आवाज़ आई ..भाग डीके बॉस डीके भाग .....
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    हार थक कर बता गया मैं सोचा मैं ही क्यू ढूँढू ..
    तभी मेरी नजर पड़ी भारत पर, जो था एक छोटा बच्चा जो जा रहा था स्कूल ....
    पर तभी मैंने देखा एक और बच्चा जो दर दर कि ठोकर खा रहा था...
    कर रहा था पेट भरने के लिए मजदूरी ....काला,नंगा ,निर्जीव शारीर...आँखों में दिख रही थी मजबूरी....
    मैं समझ गया वो नही था भारत जो जा रहा था स्कूल ...
    असली भारत तो चाट रहा है सडको पर धुल...
    मजदूरी करके कब तक ये अपना पेट भर पायेगा ....
    ये ही हालत रही तो एक दिन ये भारत भी मर जायेगा......

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