Wednesday, August 10, 2011

ख्याल कुछ........ अजीब से

सांझ का उत्सव, रोज मनाता हूं मैं.....
डूबते सूरज के साथ
, हर शाम डूब जाता हूं मैं।
लाल, पीले, स्याह, सफेद
, रंगे आसमां के साथ....
अपने भी कुछ रंगों से
, जुदा हो जाता हूं मैं।।
करता हूं जतन, अंधेरे से रोशनी छानने का.....
फिर अपनी ही गर्म सांसों से
, चौंक जाता हूं मैं।।
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पीले पुराने पन्नों पर ही, अब तक चैन आता है।
सफेद नये पन्ने पर, हर बार हाथ फिसल जाता है।।
तू ही बता मैं कैसे लिखूं, नई स्याही नई कलम से।
जब भी हाथ में लेता हूं, तो अश्क छलक जाता है।।
        
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कभी सड़क, कभी पगडण्डी से जाता हूं मैं.....
हर रोज नया रास्ता
, खोज लाता हूं मैं।
इस शहर में जाने कहां, पुरा
ना गुम जाता है.....
खुदको हर बार नया नक्शा
, समझाता हूं मैं।
तुम पूछोगे तो भूल जाउंगा, जवाब जाने-बूझे.....
देखकर तुमको भी
, अजनबी सा पाता हूं मैं।
मेरे कमरे के भीतर
, सब कुछ है पुराना सा....
यही सुनकर नया रंग भी
, अक्सर लाता हूं मैं।
अब तो नहीं रहा मैं भी, पहले जैसा......
इसीलिए पुरानी तस्वीरों से
, चेहरा मिलाता हूं मैं।।
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इक रेशमी बाल जब मेरी कमीज से लिपट जाता है।
आंखों में वो बीता दौर, बिजली सा गुजर जाता है।।
छिटक गया है जो मुझसे, बारिश की बूंदो की तरह।
जाने क्यों पलकों में वो पल, बेहिसाब बह जाता है।।

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ये कौन बिखेर गया बेहिसाब फूल मेरी राहों में,
क्या देखे नहीं उसने बेपनाह कांटे मेरी बाहों में।
अब तू ही बता इन्हें कैसे चुनूं, खुशियां मैं कैसे बुनूं,
मेरे लहू से लिपटे कांटों को, बहाना बता क्या कहूं। 
फूल तो मुरझा जाएंगे, काटें पीछे दौड़ आएंगे,
बच गई जो महक तो, जहांवाले मांगने आएंगे।
ये हमसे खेलेंगे, टूटेंगे सपने आहों में,
सुकून हमसे ले लेंगे, छोड़ेंगे पथरीली राहों में।
कोई क्यों बिखेर गया बेहिसाब फूल मेरी राहों में,
क्या देखे नहीं उसने बेपनाह कांटे मेरी बाहों में।

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                                                                        स.ब.
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