Wednesday, February 23, 2011

- जाने कबसे-


वक्त की इन बदहवास सुईयों के साथ,
जाने कबसे दौड़ रहा हूं, अथक।
ईमान के हर अरमान के साथ,
जाने कबसे खो रहा हूं, मान।
कलयुग में अपाहिज सच के साथ,
जाने कबसे भोग रहा हूं, असत्य।
वायदे के हर फर्ज के साथ,
जाने कबसे चुका रहा हूं, कर्ज।
बेआवाज़ सांस, की जिंदगी के साथ,
जाने कबसे उठा रहा हूं, लाश।
सपनों की अधमरी उम्मीदों के साथ,
जाने कबसे बुन रहा हूं, आस।
मुफ्लिसी के मारे खुदाओं के साथ,
जाने कबसे खोज रहा हूं, स्वर्ग।
फूल पत्तियों की झुर्रियों के साथ,
जाने कबसे बहा रहा हूं, रक्त।
बड़बोली उजली तकदीर के साथ,
जाने कबसे जोड़ रहा हूं टूटी, लकीरें।

होठों की दरारों में आंसुओं के साथ,
जाने कबसे पोंछ रहा हूं, प्यार।
टूटे घड़े सा दिन अंधेरे के साथ,
जाने कबसे आंखें ढूंढ रहा हूं, अंधा।
घिसट रहा हूं हर रोज लाश के साथ,
जाने कबसे तलाश रहा हूं, कंधा।

 

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