Tuesday, November 23, 2010

हमारे बीच ये कैसा चाकू?

आज आम आदमी की गर्दन पर महंगाई का चाकू है जिसने उसकी जेब को लहूलुहान कर दिया है। रोटी आसमान पर, कपड़ा सातवें आसमान पर और मकान चांद के पार निकल गया है। लिहाजा नौकरी में ईमानदारी भी दागदार होना उसका साइड इफैक्ट ही है। बुनियादी जरूरतों को जुटाने के लिए रिश्वत का खाता हर कोई खोल रहा है। नेताओं के इस शगल से आम आदमी भी नहीं बचा है। ......दरअसल भ्रष्टाचार ऐसी साजिश है जिसके दलदल में सबको शमिल करने की होड़ चल रही है। ऐसी परिस्थितियां पैदा की जा रही हैं कि आगे चलकर घूसखोरी किसी भी सूरत में मुद्दा न बन पाए, और यह किसी तोहफे के लेन-देन की तरह समाज में  स्वीकृत परम्परा बन जाए। आम आदमी की जेब पर बार-बार निशाना लगाकर उसके ईमान और संवेदना को कायदे से लाचार बनाया जा रहा है। ताकि नस्ल मंे संस्कार के अमृत को सुखाकर, जहरीला बनाया जा सके। ...........एक बानगी राष्ट्रमण्डल खेल में दिखाई दी खेल के नाम पर सियासत ने हर राज्य से महंगाई की मार से रियायत का हक छीन लिया। मीडिया में खबर भी बहुत उछली, आग भी उठी लेकिन शोले दांए बांए निकल गए और खबरों के गर्म तवे के ठण्डे होने तक उसपर उपले सेक लिए गए और जलाकर रोटी बता दी गई।.............खैर, मैं एक वरिष्ठ पत्राकार आशु के साथ सब्जी लेने गया तो सब्जियों के दाम चालीस से सौ रूपए तक बताए गए। जेब पर महंगे दाम का चाकू चला तो दुकानदार से पूछ लिया, अरे भई ये कैसे हुआ..........वह नहीं बोला, आशु ने बरबस ही तर्क दिया- यहां रेड़ी लगाने के लिए इतनी छोटी जगह के इसको महंगे दाम चुकाने पड़ते हैं, तो यह भी तो किसी से वसूलकर अपनी कॉस्ट रिकवर करेगा। भाई सब जगह लूट है और इस लूट के खेल में हर लुटने वाला पहले लुट रहा है और बाद में हिसाब बराबर करने के लिए लूट की राह पकड़ना शुरूआत में उसकी मजबूरी है बाद में आदत.....यह सुनकर रेड़ीवाले ने सिर हिलाया। ............. वाक्या एक और भी है......एक मंझे हुए पत्राकार हैं धीरेंद्र, उनके साथ एक कॉलोनी में पानी के लिए बोरिंग होते देखी तो सवाल पूछ लिया, भाई यह क्या है- जवाब मिला, हर आदमी तीस हजार रूपए स्वाहा कर रहा है क्योंकि कोई भी नियमानुसार पांच सौ रूपए का भुगतान नहीं करना चाहता, इसीलिए लुट रहा है। अभी खुद लुट रहा है बाद में उसे इसकी रंगदारी देनी पड़ेगी। इसीलिए अभी कोई टोकेगा भी नहीं।
...............नज़र दौड़ाई तो चाकू हर जगह मिला, लूट का चाकू किसी बहुरूपिए की तरह अलग-अलग स्वांग रचे था। तभी सड़क के किनारे भीड़ को देखकर ठिठक गया। आखिर माजरा क्या है? देखा, तो पता चला कि एक नवयुवक अपनी गर्दन पर चाकू लगाए, लहूलुहान खड़ा मरने की धमकी दे रहा था। तमाशबीन जुटे थे, मुझे लगा मैं भी तमाशबीन ही था। लोग पुलिसवालों से बोल रहे थे.....अरे नाटक कर रहा है, गर्दन काटकर मरना होता तो कबका मर जाता, पकड़ो साले को। ...... लेकिन मैं सोचने लगा सभी की गर्दन पर कबसे एक अदृश्य चाकू टंगा है, आखिर ये चाकू कौनसा है......मीडिया वाले उससे बात करने लगे तो वह ऑटो-चालक बोल पड़ा कि पत्नी से पीड़ित है और किसी को ऑटो से कुचल दिया.........वह युवक लोगों के लिए तमाशा था, मगर मुझे झकझोर गया, क्योंकि दो जून की रोटी के जुगाड़ में दिनभर की कश्मकश और बेलगाम बाजार की कीमती पतंग को पाने के लिए पसीने की पतवार के बीच उसे भीतर तक कई चाकुओं ने गोद डाला था, संवेदनाएं बह चुकी थीं और सब कुछ खोकर बदहवासी मंे चाकू थाम लिया होगा।
............................... हर रोज, हर पल हम किसी न किसी चाकू का शिकार हो रहे हैं, इस सबके बावजूद हैरत इस बात से है कि चाकू देने और चलाने वाले कानून की जद में नहीं हैं। कलयुग है तो नतीजा भी उलट है चाकू से घायल होकर लोग उससे नफरत करने के बजाए मुहब्बत कर बैठे हैं। पता नहीं कोई कुछ बोलता क्यों नहीं? और बोलता है तो असर क्यों नहीं होता?

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